मैं केवल एक DGP नहीं बल्कि एक परिवार के मुखिया (ऋषि कुमार शुक्ला)
Oct 21st, 2016 7:11 am | By ThenewsmanofIndia.com | Category: SPECIAL NEWS COVERAGEशहीद दिवस के मौके पर पुलिस महानिदेशक ऋषि कुमार शुक्ला ने साझा किए अपने अनुभव-:
आज मैं केवल एक पुलिस महानिदेशक नहीं बल्कि एक परिवार के मुखिया के तौर पर अपने पुलिस कर्मचारियों, उनके परिजनों और जनता से अपनी बात कहना चाहता हूं। जब मैं पुलिस सर्विस में आया था तब एक ही सोच थी कि हर पीडि़त को इंसाफ दिलवा सकूं। उसे न्याय दिलाकर कुछ हद तक उसका दुख दूर कर सकूं, क्योंकि पुलिस की खाकी वर्दी का न केवल एक सम्मान है बल्कि जनता का भरोसा भी है। बतौर पुलिस परिवार के मुखिया के तौर पर मेरी जिम्मेदारी और बढ़ गई है। अब मुझे न केवल इस बात का ध्यान रखना है कि जनता का अहित न हो बल्कि पुलिस परिवार के सदस्यों की अपेक्षाओं को भी पूरा कर सकूं। इसलिए मेरा प्रयास यही है कि जनता के साथ-साथ अपने पुलिस परिवार के सदस्यों के साथ भी संवाद स्थापित कर सकूं।
पता नहीं इस बात का अहसास किसी को है या नहीं कि पुलिस की जान कितनी जोखिम में रहती है। एक पुलिसवाले के परिवार को हर पल यह डर सताता है कि आज शाम सुरक्षित घर लौटेगा कि नहीं। जब भी मौका आता है तो किसी सैनिक की तरह हमारे पुलिस जवान अपनी तकलीफों को भूलकर अपने कर्तव्य को निभाने में जुट जाते हैं। जब सैनिक सीमा पर दुश्मनों से लड़ते-लड़ते शहीद होता है तो उसकी शहादत को पूरा देश सलाम करता है। इसी तरह हमारे पुलिस जवान भी सड़क पर जनता की सुरक्षा में कई बार अपनी जान खो बैठते हैं लेकिन उनकी यह शहादत गुमनामी के अंधेरे में गुम हो जाती है। बीते एक वर्ष में मेरे पुलिस परिवार ने अपने 5 साथियों को खोया है। आरक्षक अतिबल सिंह, प्रधान आरक्षक महेश यादव, प्रधान आरक्षक बसंत वर्मा, उप निरीक्षक विद्याराम दोहरे और प्रधान आरक्षक रिखीराम यादव।
पुलिस का जन्म 1860 में समाज को नियंत्रित करने के उद्देश्य को पूरा करने के लिए हुआ था। शायद यही कारण है कि अपनी स्थापना के साथ ही पुलिस का चेहरा समाज में दमनकारी बन गया। समय के साथ पुलिस भी बदली है लेकिन पुरानी छवि के कारण जनता ने आज भी उसे पूरी तरह से स्वीकर नहीं किया है। मैं यह नहीं कहता कि पुलिस में कोई खामी नहीं है। उसमें सुधार की गुंजाइश है और हम इसके लिए हमेशा प्रयासरत हैं।
मेरी कोशिश है त्रुटि करने वाले को सजा मिलती है तो निष्ठापूर्वक काम करने वाले को प्रोत्साहित किया जाए। करने की भी कोशिश की जा रही है। मैं पुलिसकर्मियों की कर्तव्य निर्वहन में आने वाली व्यवहारिक समस्याओं को समझता हूं, इसलिए पुलिस कर्मियों के कल्याण को प्राथमिकता देने की कोशिश की जा रही है ।
आज ही के दिन 21 अक्टूबर 1959 को लद्दाख सीमा पर भारतीय पुलिस के 20 जवानों की टुकड़ी पर घात लगाकर हमला किया गया था। हमारे जवानों ने बहादुरी के साथ दुश्मनों से मुकाबला किया और 10 जवानों ने देश की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दे दी। आज हम उनके साथ अपने प्रत्येक निष्ठावान पुलिस जवान की शहादत पर श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। मैं अपनी जनता से आज के दिन सिर्फ यही कहना चाहूंगा कि आप भले ही साल में 364 दिन पुलिस को कोसते रहिए, लेकिन कम से कम एक दिन 21 अक्टूबर को अपनी पुलिस के प्रति एक क्षण ही सही पर पुलिस के प्रति कृतज्ञता जाहिर जरूर करें। इससे मेरा और मेरे इस पुलिस परिवार का आत्मबल बढ़ेगा। आखिरकार पुलिस आप की अपनी ही तो है।